Thursday, December 27, 2018

अचानक खिलखिलाहट के बीच चुप हो जाना मानो अनुभूतियों का चालक बिठा लेता है उसे यादों की ट्रेन में और फिर शुरू हो जाती मौन की यात्रा रात के सन्नाटे पर सवारी करते हुए, अच्छा भी है ज़िन्दगी की यात्रा में छोटे छोटे स्टेशनों का आना जहाँ उतर कर वह अनुभव करती यथार्थ का वैसे मौन होना आवश्यक है क्यूंकि मौन संवाद करता है नियति की अनुभूतियों से, मौन संवाद करता है स्वयं के अस्तित्व से, मौन संवाद करता है वास्तविकता से, मौन संवाद करता है नई दिशा से, मौन संचित करता ऊर्जा के पिंड को मौन पिंड में और फिर स्थापित करता है अपने मापदण्डों पर। जिंदगी में गर्दिश भी है नूर भी है  पर कभी कभी ढक दी जाती है वह बादलों से जो शीतल तो दिखते हैं पर छेंक लेना चाहते उसकी वास्तविकता को उसके नूर को जो केवल और केवल चाहते खुद की रोशनी बनाना। उसके अंतर्मन को समझे बिना और वह उलझ जाती लड़ती और फाड़ देना चाहती उलझनों को मकड़ी की जाले की तरह। हवा कितनी बंधी है? प्रकाश कितना बंधा है? विस्तार कितना बंधा है? और आकार कितना बंधा है? वास्तव में इनकी स्वतंत्रता में ही इनका जीवन है और बांधने की स्थिति में इनको खो देना है। वह भी ऐसी ही है नूर है जो एक दिन इसी स्याह समंदर से निकलेगी और स्वयं को स्थापित करेगी। सत्य ही कहा उसने जहन की खरोंचें आत्मा तक को छील देती हैं
वह निर्मल धारा है जिसकी प्रवित्ति बहना और बहते रहना है, समझना होगा नदियों पर बने बाँध कुछ समय के लिए नदियों की दिशा बदल सकते हैं पर उसकी प्रवित्ति को कदापि प्रभावित नहीं कर सकते यदि ऐसा प्रयास होता है तो वह दिखाने लगती अपना विस्तार जहाँ बस और बस वही रहती और कुछ नहीं।
चलना चाहता हूँ मैं भी उसकी अनंत यात्रा पर उसके साथ उस नाविक की नौका बनकर और निकालना चाहता हूँ उसे परिस्थितियों के ज्वार भाटे से और बहना चाहता हूँ साथ साथ निर्मल नदिया की धार में प्रकृति की वास्तविक प्रकृति में।
इन्हीं अनभूतियों की लहरों में नियति से संवाद करते हुए नई अनुभूतियों को प्राप्त करती और उन अनुभूतियों से पुनः नियति का निर्धारण करती, प्रकृति की गोद में बैठी प्रकृतिपुत्री

#फिर होगी मुलाक़ात

फिर होगी #खुद से बात☺️

#प्रकृतिपुत्री

Tuesday, October 2, 2018

किरदार तुम्हारा सदा चहकने वाला है

अंधियारे की चादर ओढ़े सोया जो
सूर्य दीप्ति ले फिर से जगने वाला है

घबराओ मत पौध मेरी आशाओं की
वसुधा का यह रूप संवरने वाला है

है मशाल जो जली यहां की झुग्गी से
घोर तिमिर का बंधन कटने वाला है

सुनो!किरायेदारों वापस घर आओ
घर अपना ही विश्व बदलने वाला है

और पिलाओ विष का गागर जल्दी से
नीलकंठ का रंग उतरने वाला है

अस्त व्यस्त ही सही रहूँगा संग तेरे
सदा तेरा किरदार चहकने वाला है

     लल्ला गोरखपुरी....

Saturday, September 1, 2018

हमें एक संग चलना है

सूरज की हो बूंदा बांदी
या जल बन फट जाए बादल
हो बाणों सी तीखी बातें
या अंधकार बन जाये काजल
इसी समय को ढाल बनाकर
इसी समय से लड़ना है
हमें एक संग चलना है।।

लिए चलें अनुभव को प्रति पल
नियति के निर्णय को निश्छल
हम जीवन के रंगमंच पर
लिख दें एक कथानक पागल
मैं किताब तुम अक्षर अक्षर
खुद को खुद से पढ़ना है
हमें एक संग चलना है।।

तुम धारा हो गंगाजल की
शिव के शीश जटा से छलकी
तपोभूमि का मर्म तुम्ही हो
तुम्ही नाद हो कल कल की
हो माझी मैं नाव तुम्हारा
सप्तसिंधु तक बढ़ना है
हमें एक संग चलना है।।

(लल्ला गोरखपुरी)
#प्रकृति पुत्री#

चैन की कुंडी

चैन की कुंडी पर टंगी बेचैनियां,
अक्सर खनखना जाती हैं
सुनकर ,
बसंती हवा में घुलती धुएँ की सनसनाहट।

और धरती सा हृदय
काँप जाता है
धड़कन के भूकंप से।

फूटने के लिए
तैयार हो जाती है
नई धारा,
आँखों के जल श्रोत से।

और इसी बीच
जब आती है आवाज
ठंड के अकड़न को तोड़ती हुई
गुनगुनाती धूप की तरह
मैं निखर जाता हूँ
अल्हड़ हँसी पुचकार से।

फिर समेट लेती है
तितली जैसे
बैठकर,
सारा सूनापन कुंडी से।

मिलता है नया स्वाद
हृदय को
हलक में,
उतरते थूक की तरावट से।

(लल्ला गोरखपुरी)
#(प्रकृतिपुत्री)

Monday, July 23, 2018

है पथिक जो तू अगर..

है पथिक जो तू अगर
तो तुझे चलना भी होगा
इस गगन में नित्य उगना
और फिर ढलना भी होगा

मंदाकिनी, आकाशगंगा
सब तेरे चरणों में हैं
मंत्र सी अभिव्यक्ति तेरी
भाव उर अधरों में हैं
अब सहस्त्रों सूर्य को
प्रदीप्ति देने के लिए

वक्ष पर मिथ्या के चढ़कर
ज्वाल बन जलना भी होगा
है पथिक जो तू अगर
तो तुझे चलना भी होगा।।

(लल्ला गोरखपुरी)
#प्रकृतिपुत्री

"मुक्तक"

1:- "क्या अज़ीब शौक पालता हूँ
       वक़्त बेवक़्त नज़्में उछालता हूँ
       दिखाने के ख़ातिर अंधेरे का चेहरा
       चिरागों में मैं रोशनी डालता हूँ"

2:- प्रतिमाओं को बदल कर देखते हैं
      इन हवाओं को बदल कर देखते हैं
      लोग भूखे पेट अब यह कह रहे
      देवताओं को बदल कर देखते हैं

(लल्ला गोरखपुरी)