चैन की कुंडी पर टंगी बेचैनियां,
अक्सर खनखना जाती हैं
सुनकर ,
बसंती हवा में घुलती धुएँ की सनसनाहट।
और धरती सा हृदय
काँप जाता है
धड़कन के भूकंप से।
फूटने के लिए
तैयार हो जाती है
नई धारा,
आँखों के जल श्रोत से।
और इसी बीच
जब आती है आवाज
ठंड के अकड़न को तोड़ती हुई
गुनगुनाती धूप की तरह
मैं निखर जाता हूँ
अल्हड़ हँसी पुचकार से।
फिर समेट लेती है
तितली जैसे
बैठकर,
सारा सूनापन कुंडी से।
मिलता है नया स्वाद
हृदय को
हलक में,
उतरते थूक की तरावट से।
(लल्ला गोरखपुरी)
#(प्रकृतिपुत्री)
अक्सर खनखना जाती हैं
सुनकर ,
बसंती हवा में घुलती धुएँ की सनसनाहट।
और धरती सा हृदय
काँप जाता है
धड़कन के भूकंप से।
फूटने के लिए
तैयार हो जाती है
नई धारा,
आँखों के जल श्रोत से।
और इसी बीच
जब आती है आवाज
ठंड के अकड़न को तोड़ती हुई
गुनगुनाती धूप की तरह
मैं निखर जाता हूँ
अल्हड़ हँसी पुचकार से।
फिर समेट लेती है
तितली जैसे
बैठकर,
सारा सूनापन कुंडी से।
मिलता है नया स्वाद
हृदय को
हलक में,
उतरते थूक की तरावट से।
(लल्ला गोरखपुरी)
#(प्रकृतिपुत्री)
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