अचानक खिलखिलाहट के बीच चुप हो जाना मानो अनुभूतियों का चालक बिठा लेता है उसे यादों की ट्रेन में और फिर शुरू हो जाती मौन की यात्रा रात के सन्नाटे पर सवारी करते हुए, अच्छा भी है ज़िन्दगी की यात्रा में छोटे छोटे स्टेशनों का आना जहाँ उतर कर वह अनुभव करती यथार्थ का वैसे मौन होना आवश्यक है क्यूंकि मौन संवाद करता है नियति की अनुभूतियों से, मौन संवाद करता है स्वयं के अस्तित्व से, मौन संवाद करता है वास्तविकता से, मौन संवाद करता है नई दिशा से, मौन संचित करता ऊर्जा के पिंड को मौन पिंड में और फिर स्थापित करता है अपने मापदण्डों पर। जिंदगी में गर्दिश भी है नूर भी है पर कभी कभी ढक दी जाती है वह बादलों से जो शीतल तो दिखते हैं पर छेंक लेना चाहते उसकी वास्तविकता को उसके नूर को जो केवल और केवल चाहते खुद की रोशनी बनाना। उसके अंतर्मन को समझे बिना और वह उलझ जाती लड़ती और फाड़ देना चाहती उलझनों को मकड़ी की जाले की तरह। हवा कितनी बंधी है? प्रकाश कितना बंधा है? विस्तार कितना बंधा है? और आकार कितना बंधा है? वास्तव में इनकी स्वतंत्रता में ही इनका जीवन है और बांधने की स्थिति में इनको खो देना है। वह भी ऐसी ही है नूर है जो एक दिन इसी स्याह समंदर से निकलेगी और स्वयं को स्थापित करेगी। सत्य ही कहा उसने जहन की खरोंचें आत्मा तक को छील देती हैं
वह निर्मल धारा है जिसकी प्रवित्ति बहना और बहते रहना है, समझना होगा नदियों पर बने बाँध कुछ समय के लिए नदियों की दिशा बदल सकते हैं पर उसकी प्रवित्ति को कदापि प्रभावित नहीं कर सकते यदि ऐसा प्रयास होता है तो वह दिखाने लगती अपना विस्तार जहाँ बस और बस वही रहती और कुछ नहीं।
चलना चाहता हूँ मैं भी उसकी अनंत यात्रा पर उसके साथ उस नाविक की नौका बनकर और निकालना चाहता हूँ उसे परिस्थितियों के ज्वार भाटे से और बहना चाहता हूँ साथ साथ निर्मल नदिया की धार में प्रकृति की वास्तविक प्रकृति में।
इन्हीं अनभूतियों की लहरों में नियति से संवाद करते हुए नई अनुभूतियों को प्राप्त करती और उन अनुभूतियों से पुनः नियति का निर्धारण करती, प्रकृति की गोद में बैठी प्रकृतिपुत्री
#फिर होगी मुलाक़ात
फिर होगी #खुद से बात☺️
#प्रकृतिपुत्री
वह निर्मल धारा है जिसकी प्रवित्ति बहना और बहते रहना है, समझना होगा नदियों पर बने बाँध कुछ समय के लिए नदियों की दिशा बदल सकते हैं पर उसकी प्रवित्ति को कदापि प्रभावित नहीं कर सकते यदि ऐसा प्रयास होता है तो वह दिखाने लगती अपना विस्तार जहाँ बस और बस वही रहती और कुछ नहीं।
चलना चाहता हूँ मैं भी उसकी अनंत यात्रा पर उसके साथ उस नाविक की नौका बनकर और निकालना चाहता हूँ उसे परिस्थितियों के ज्वार भाटे से और बहना चाहता हूँ साथ साथ निर्मल नदिया की धार में प्रकृति की वास्तविक प्रकृति में।
इन्हीं अनभूतियों की लहरों में नियति से संवाद करते हुए नई अनुभूतियों को प्राप्त करती और उन अनुभूतियों से पुनः नियति का निर्धारण करती, प्रकृति की गोद में बैठी प्रकृतिपुत्री
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