Wednesday, November 27, 2019

कभी कभी अनुभव का दायरा इंसान को कर्तव्यों से बहुत दूर लेकर चला जाता है, लेकिन इससे पहले कि हम कहीं भटक ना जाएं,
हमें जरूरत होती है अपनी निष्ठा पूर्वक बनाई गई चीजों को सहेजने की, उसके साथ सदा ईमानदार रहने की।
कर्तव्यों से दूर एक बारीक लकीर है ,यह महज एक लकीर नही चेतना का मंच है जहां नाचती है मुग्धता, देखता है आत्मसम्मान, संगीत गाती वासना और निर्णय कर्ता कर्म।
हमें जरूरत होती उस लकीर के दरम्यान अपने चेतना के साथ सत्कर्मों की, वासना हर बार पर्दा डाल देती और नए नाटक का मंचन करती आत्मसम्मान के सामने। इसी बीच शुरू होता अपने नजरों में सदा उठा हुआ मष्तिष्क का विचरण जहां हर विचार एक उपद्रव होता है जो मंच को बनाने के लिए आता या तो गंवाने के लिए और कर्म नियति की तूलिका से निर्णय के लिए तैयार रहता है।


लल्ला गोरखपुरी
#एक_विचार 🤗🌹🤗🌹

Sunday, July 7, 2019

तुम हो मैं हूँ हम हैं
तजुर्बे की मछली पकड़ते हुए
उम्मीदों की नाव में

तुम हो मैं हूँ हम हैं
धो रहे कपड़े की तरह जिस्म
निचोड़ रहे पसीना

तुम हो मैं हूँ हम हैं
समय के कपाल पर बुन रहे हैं अक्षर
अक्षर होने के लिए

तुम हो मैं हूँ हम हैं
सीमा से ऊपर समय का पंख लगाये
उस पार से इस पार तक

तुम हो मैं हूँ हम हैं
पहरे की पहरेदारी पर
पहर के आगे

तुम हो मैं हूँ हम हैं
विचारों को दृष्टि देने के लिए
दर्शन के शिखर पर

तुम हो मैं हूँ हम हैं
सकल विश्व के सृजनार्थ
अर्धनारीश्वर जैसे

तुम हो मैं हूँ हम हैं
विवेचना के उत्कृष्ट मंच पर
मौन के तरह

तुम हो मैं हूँ हम हैं
सृजन के अथाह गर्भ में
प्रेम की भाँति

तुम हो मैं हूँ हम है
जन्म जन्मांतर की असीम यात्रा में
तुम मैं हम होकर



(लल्ला गोरखपुरी)

Thursday, June 20, 2019

Chintan

क्या होता है जब कुछ समझ में नहीं आता? क्या होता है जब अंदर की हलचल मानो हर दीवार को तोड़ देना चाहती हो? क्या होता है जब आंखों का वाटर लेवल धीरे धीरे डाउन होने लगता है और एक समय बाद हो जाती हैं बंजर आंखें, हाहाहा ! मत सोचो! मत सोचो इतना कि चिंता की कुदाल से उपजाऊ हो जाये तुम्हारा दिमाग और उसमें उगने लगें अवसाद के बरगद। नहीं संभाल पाओगे उसकी फैलती हुई जड़ें इतनी आसानी से जितनी आसानी से रोपोगे नाहक बातों के बीज। शब्दों की ऊर्जा पहचानो! ये हैं विचित्र बीज जो बदल लेते हैं खुद की पहचान तुम्हारे शरीर में बदलते हुए सकारात्मक, नकारात्म, चिंता और चिंतन रूपी मौसम के साथ।
     ये वही शब्द हैं जो किसी के लिए चुनौती तो किसी के लिए अवसाद का रूप ले कर उगने लगते हैं। जिस प्रकार दाल की खेती अनावश्यक वर्षात में नहीं संभव है उसी प्रकार चुनौतियों तथा संकल्प की खेती, आंखों की अनावश्यक बारिश में असम्भव है। सींचो ! मगर भाव से, अपनी समस्त पौध को, जो रोपे हो अपने दिल में और जिससे पाना चाहते हो अपनी इच्छाओं के फल। तुम्हारे संकल्प अरहर के फली के जैसे हैं जो लेंगे समय, जिनको नही जरूरत है अनावश्यक जल की उनको बस चाहिए समय समय पर भाव के सजीव जल, स्वयं को परिपक्व करके उपभोग के योग्य होने हेतु।
    माना कि समय असमय छेंक लेते हैं तमाम झंझावातों के टिड्डि दल और खाने लगते हैं तुम्हारे संकल्पों के फल पर तुम्हे स्वयं पैदा करना होगा सकारात्मकता का मौसम और छिड़कना होगा संकल्प के वृक्ष पर संघर्ष की दवाई, तभी तुम बचा पाओगे उन्हें दिल के जमीन पर।
      खड़ी की जाएंगी तमाम मनोवृत्तियों की दीवारें और घेरा जाएगा तुम्हे, फिर जकड़ा जाएगा कोई एक विचारों का कमरा दे कर और छीन लिया जाएगा तुम्हारे विचारों का स्वछंद घोड़ा।
      इसीलिए तैयार करो अपने चिंतन का हथौड़ा जो नेस्तनाबूद कर दे इन दीवारों को।
       आगे बढ़ो ! रोपते जाओ! बस रोपते जाओ स्वयं के होने का उचित कारण।

फिर मिलेंगे अगली कड़ी में..
फिर होगी #ख़ुद_से_बात
#उनके_लिए😊

(लल्ला गोरखपुरी)

Wednesday, March 27, 2019

"फ़िकर में माँ न होना तुम,
बनो तो बाप बन जाना,
नहीं तो शक के कीड़े
दीमकों सा घर बना लेंगे"

Friday, March 22, 2019

बुद्ध से कबीर तक

क्या हुआ? क्या सोच रहे श्रेष्ठ?  हवा के हल्की छुअन से हिलते हुए पत्तों के समान ओष्ठ पल्लव और खनखनाती हुई आवाज में आर्य ने प्रश्न किया,
कुछ नही बस आत्मदर्शन, श्रेष्ठ ने उत्तर दिया।

आर्य- आत्मदर्शन! कौन सा आत्म दर्शन?

श्रेष्ठ- कौन सा से क्या आशय है आर्य? स्वयं के प्रति प्रतिबद्ध होकर आत्मावलोकन की स्थिति को समझ रहा हूँ, यही आत्मदर्शन।

आर्य- अच्छा! परन्तु स्वयं को समझ रहा हूँ यह बात कुछ समझ में नही आयी। किस प्रकार का आत्मावलोकन है तुम्हारा? कृष्ण के कर्मयोग का जिसमे गृहस्थ सन्यासी की चर्चा हुई है या भक्ति योग की जिसमे सन्यास की बाते हैं ?

श्रेष्ठ- हाहाहा! कर्म सन्यासियों  से अछूता है क्या?

आर्य- बिल्कुल नहीं परन्तु कर्म की दुदुम्भी गृहस्थ ही बजाते हैं और गृहस्थ को सन्यासी से  श्रेष्ठ ही कहा गया है।

श्रेष्ठ- कर्म की दुदुम्भी गृहस्थ ही बजाते हैं? हाहाहा! आर्य! कर्म की दुदुम्भी कर्म स्वयं बजाता है

आर्य-अच्छा! स्वयं कैसे?
श्रेष्ठ- जैसे हृदय पर धड़कन की थाप अविचल निरंतर एक आयाम तक पड़ती है उसी प्रकार किसी क्रिया में सक्रिय हुए अथवा स्थिर हुए के साथ भी कर्म जुड़ा रहता है।

आर्य- ठीक है, फिर इस कर्म की गति क्या है?

श्रेष्ठ- चेतना की गति ही कर्म की गति है।

आर्य- फिर अचेतावस्था में लोग अकर्मण्य होते हैं?

श्रेष्ठ- हाहाहा! चेतना का तात्पर्य मात्र बाह्य क्रियाओं को संपादित करने की स्थिति मात्र से नहीं है ,मस्तिष्क का वह भाग भी सदैव चैतन्यता को ही दिखाता है जो प्राणी को जीवित रखा है।
अंतः क्रिया भी कर्म को फलीभूत करती है।

आर्य- अच्छा ठीक है परंतु आज के समय के कार्य क्या तुम्हारे आत्मदर्शन को पुष्ट करते हैं?

श्रेष्ठ- बिल्कुल आर्य! बिल्कुल करते हैं।
आर्य- वह कैसे?

श्रेष्ठ- कार्यों के प्रति निष्ठा और ईमानदारी जो कि सदैव बोध कराती है सतचित का और यही तो एक मार्ग है आत्मदर्शन तक पहुंचने का।

आर्य- क्या जो निष्ठा और लगन के साथ गलत कार्य करते हैं वो भी इस आत्मदर्शन को जान सकते हैं?

श्रेष्ठ- बिल्कुल जान सकते हैं।
आर्य- वह कैसे?

श्रेष्ठ- ठीक उसी प्रकार जैसे अंगुलिमाल और वाल्मीकि ने जाना होगा जब अपने कार्यों के प्रति उनके विचार और निष्ठा एक दिन सतविचार और सत्यनिष्ठा से टकराये होंगे।

आर्य-अच्छा! लेकिन आज के परिवेश में ये स्थितियां दुर्गम जान पड़ती हैं

श्रेष्ठ- बिल्कुल दुर्गम तो हैं पर सुगमता से सटे हुए
आर्य- सुगमता से सटे हुए?

श्रेष्ठ- असल में बात यह है कि दुर्गम कुछ है ही नही बस रास्तों की सुविधाएं घटा या बढ़ा दी गयी हैं।

आर्य- हाहाहा! सही कहा श्रेष्ठ! फिर भी यदि ये सब तुम्हारे नजर में सुविधाएं हैं तो फिर लोग परेशान क्यूँ हैं? इन सुविधाओं को सुव्यवस्थित करने में लग क्यूँ नहीं जाते?

श्रेष्ठ- लगे तो हैं सभी सुव्यवस्थित करने में ही लगे हैं, कुछ मात्र विचारों से और कुछ माझी बनकर।
और इन्हीं कारणों से ये सुविधायें किसी के लिए घटी हैं तो किसी के लिए प्रचूर हैं

आर्य- आज रुपयों पर हवन करने वाले आत्मदर्शन को पा सकेंगे?

श्रेष्ठ- यदि उनमे लोक कल्याण की भावना है तो निःसंदेह

आर्य- यदि सभी अपने कल्याण में लगे हों तब भी तो लोक कल्याण सम्भव है?

श्रेष्ठ- स्वकल्याण, लोककल्याण की स्थिति को तभी प्राप्त कर सकती है जब उसमे परिवेश की प्रसन्नता समाहित हो अन्यथा कभी नहीं।

आर्य- सही कहा श्रेष्ठ!

श्रेष्ठ- आज का भौतिवादी समाज शांति तो चाहता है परंतु आत्मकेंद्रीयता के मूल्य पर नही बल्कि लोकभावनाओं के आस पर जो कि अस्थायी है या है ही नही।

आर्य- तो क्या आत्मकेंद्रीयता सन्यास से संभव है? जैसा कि बुध्द ने किया और आत्मदर्शन तक पहुंचे?

श्रेष्ठ- नहीं! बिल्कुल नहीं यह एक मार्ग अवश्य है लेकिन केवल यही एक मार्ग है ऐसा नहीं है।

आर्य- तो फिर दूसरा मार्ग क्या है?
श्रेष्ठ- दूसरा मार्ग! दूसरा मार्ग है समाज के बीच में ही सक्रिय रहकर समाज के बीच में नित्य घटित होने वाली घटनाओं को देखना, विमर्श करना और लोक कल्याण हेतु उसी समाज का मार्गदर्शन के साथ साथ आपसी प्रेम और सद्भाव को स्थापित करना और कराना, कुरीतियों और रीतियों के अंतर  का बोध कराना आदि जिसे बाबा कबीर ने जीया और समाज की हर डोर को जोड़कर प्रेम रूपी धागे और कटु सत्य रूपी सुई से सीया।

आर्य- वाह श्रेष्ठ वाह! तुमने मुझे सन्यास और गृहस्थ सन्यास के अंतर को ठीक ठीक समझाया।

श्रेष्ठ- दोनों ही स्थितियां श्रेष्ठ ही हैं आर्य क्योंकि दोनों अंततः इसी समाज और मानव विचार तक लोककल्याण की भावनाओं के रूप में पहुंचती हैं।

आर्य- अर्थात, बुद्ध से कबीर तक!
श्रेष्ठ- हाहाहा! बिल्कुल आर्य!

आर्य- चलो श्रेष्ठ पुनः मिलना होगा नये प्रश्नों के साथ अगली कड़ी में

श्रेष्ठ- निःसंदेह ! शुभ हो! फिर मिलते हैं।।




अभिषेक(लल्ला गोरखपुरी)

Thursday, January 24, 2019

भूमिकाओं के निर्धारण में सीमाओं की बाध्यता

भूमिकाओं के निर्धारण में सीमाओं की बाध्यता ठीक उसी प्रकार है जैसे नदियों पर बांध का बनाना। असमय जब किरदार की भूमिकाओं को बदलने की कोशिश की जाती है तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि किरदार की मूल प्रकृति क्या है या यूँ कहें वह स्वयं की पहचान भूलने लगता है शायद इसका मूल कारण हमारे इर्द गिर्द घूम रहे लोगों की आकांक्षाएं हैं और सभी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप हमें चलाने या चलने के लिए सुझाव देते हैं, वे भूल जाते हैं कि प्रकृति के द्वारा प्रदत्त ये अरबों खरबों पिंड जिन्हें हम मस्तिष्क कहते हैं उन सबकी अपनी प्रकृति और अपनी भूमिका होती है जिसको केवल और केवल उस पिंड का मालिक ही चला सकता है ना कि अन्य। हां यह बिल्कुल सत्य है कि उनके अनुभवों की पुड़िया किरदार के लिए औषधि का काम करती है फिर भी हर औषधि सभी शरीर के लिए लाभकारी नही हो सकती। यह लेख उसी किरदार के लिए है जो रोज स्वयं से जद्दोजहद करता है कि वह क्या करे? हालांकि उसे यह पूरी तरह पता है कि वह क्या बेहतर कर सकता है फिर भी बांध बनाये जा रहे हैं कि उसको किस दिशा में बहना है? सच कहूँ तो ये निर्माणकर्ता हमारे आपके बीच के ही लोग हैं जिन्हें सिर्फ कहना होता है कुछ बोलना होता है भले वह उन अनुभवों से पूरी तरह रूबरू हों या ना हों। उनकी बातें सिगरेट के धुएँ की तरह रुक रुक कर प्रवाहित होतीं हैं और आखिरी कश में बचते बचाते मुहँ को जला ही देती हैं।
वह कहते हैं ना कि-

"कुछ लोग सुनते नहीं, सुनाने लगते हैं
ज़ुबाँ की मुहब्बत से हक़ जताने लगते हैं
जिसने झेली नहीं कभी गम-ए-किरदार की तपिश
वो भी आफ़ताब को आईना दिखाने लगते हैं"

जल की शुद्धता उसके स्वतंत्रत प्रवाह में निहित है और इसे समझना होगा बांध बनाने से यह रास्ते तो बदल लेगा परन्तु जब इसमे अपनी मूलप्रकृति की चेतना जागृत होगी तो सब जलमग्न कर देगा और चारो तरफ केवल और केवल वही दिखेगा क्रांति की छाती पर चढ़कर विध्वंस के  उद्गोष के साथ नवसृजन का अमृत कलश लिए हुए "युवा"


(लल्ला गोरखपुरी)