भूमिकाओं के निर्धारण में सीमाओं की बाध्यता ठीक उसी प्रकार है जैसे नदियों पर बांध का बनाना। असमय जब किरदार की भूमिकाओं को बदलने की कोशिश की जाती है तो यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि किरदार की मूल प्रकृति क्या है या यूँ कहें वह स्वयं की पहचान भूलने लगता है शायद इसका मूल कारण हमारे इर्द गिर्द घूम रहे लोगों की आकांक्षाएं हैं और सभी अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप हमें चलाने या चलने के लिए सुझाव देते हैं, वे भूल जाते हैं कि प्रकृति के द्वारा प्रदत्त ये अरबों खरबों पिंड जिन्हें हम मस्तिष्क कहते हैं उन सबकी अपनी प्रकृति और अपनी भूमिका होती है जिसको केवल और केवल उस पिंड का मालिक ही चला सकता है ना कि अन्य। हां यह बिल्कुल सत्य है कि उनके अनुभवों की पुड़िया किरदार के लिए औषधि का काम करती है फिर भी हर औषधि सभी शरीर के लिए लाभकारी नही हो सकती। यह लेख उसी किरदार के लिए है जो रोज स्वयं से जद्दोजहद करता है कि वह क्या करे? हालांकि उसे यह पूरी तरह पता है कि वह क्या बेहतर कर सकता है फिर भी बांध बनाये जा रहे हैं कि उसको किस दिशा में बहना है? सच कहूँ तो ये निर्माणकर्ता हमारे आपके बीच के ही लोग हैं जिन्हें सिर्फ कहना होता है कुछ बोलना होता है भले वह उन अनुभवों से पूरी तरह रूबरू हों या ना हों। उनकी बातें सिगरेट के धुएँ की तरह रुक रुक कर प्रवाहित होतीं हैं और आखिरी कश में बचते बचाते मुहँ को जला ही देती हैं।
वह कहते हैं ना कि-
"कुछ लोग सुनते नहीं, सुनाने लगते हैं
ज़ुबाँ की मुहब्बत से हक़ जताने लगते हैं
जिसने झेली नहीं कभी गम-ए-किरदार की तपिश
वो भी आफ़ताब को आईना दिखाने लगते हैं"
जल की शुद्धता उसके स्वतंत्रत प्रवाह में निहित है और इसे समझना होगा बांध बनाने से यह रास्ते तो बदल लेगा परन्तु जब इसमे अपनी मूलप्रकृति की चेतना जागृत होगी तो सब जलमग्न कर देगा और चारो तरफ केवल और केवल वही दिखेगा क्रांति की छाती पर चढ़कर विध्वंस के उद्गोष के साथ नवसृजन का अमृत कलश लिए हुए "युवा"
(लल्ला गोरखपुरी)
वह कहते हैं ना कि-
"कुछ लोग सुनते नहीं, सुनाने लगते हैं
ज़ुबाँ की मुहब्बत से हक़ जताने लगते हैं
जिसने झेली नहीं कभी गम-ए-किरदार की तपिश
वो भी आफ़ताब को आईना दिखाने लगते हैं"
जल की शुद्धता उसके स्वतंत्रत प्रवाह में निहित है और इसे समझना होगा बांध बनाने से यह रास्ते तो बदल लेगा परन्तु जब इसमे अपनी मूलप्रकृति की चेतना जागृत होगी तो सब जलमग्न कर देगा और चारो तरफ केवल और केवल वही दिखेगा क्रांति की छाती पर चढ़कर विध्वंस के उद्गोष के साथ नवसृजन का अमृत कलश लिए हुए "युवा"
(लल्ला गोरखपुरी)
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