Wednesday, April 1, 2020

बँधुआ शिक्षा
और बँधुआ शिक्षानीति
एक चक्की के आसपास
गुलामों जैसे मंडराते विचार
काश! अपने ज्ञान को और विस्तार देते
तो शायद आज
ये कत्तई नहीं होता।
तुम नहीं पोषते
पीढ़ियों के कुंठित विचार
रूढ़ियों के दीमक
जो अभी भी नही होने दे रहे
तुमको हरा भरा।

तुम इस्तेमाल करते
सद्विचारों का ब्लीचिंग पाउडर
और साफ करते
कहीं सिमटे हुए जल की भांति
दुर्गंध फैलाती मानसिकता को,
बनाते एक रास्ता
जो पहुंचाती तुम्हे दरिया से
समंदर की अथाह गहराईयों तक
जहाँ रहस्य और प्राप्ति
तुम्हें मग्न कर देते
अपनी पजल सुलझाने में।

तुम समझ पाते
आसपास हो रही घटनाओं के मर्म को,
तुम देख पाते पतझड़ जैसे
सूखे पत्तों सा गिरता जीवन,
तुम महसूस करते मानवता,
लुटने से बचा पाते
मदद का दामन।

तुम बना पाते
मानवीय नैतिकता के पुल,
एक उद्यमी की भांति
सहज जोड़ पाते ख़ुद को
आधुनिक विज्ञान से
जहां खिलते हैं नये नये
शोध के फूल,
तुम समझ पाते आइंस्टीन की थ्योरी
गुरुत्वाकर्षण के नियम
क्रिया प्रतिक्रिया की रूपरेखा को
रामानुजन के गणितीय सिद्धांत
जैविक विकास के क्रम को
आर्यभट्ट के खगोल को
बीरबल साहनी के वानस्पतिक शोध को
अबू मूसा के रसायन,
दर्शन और ज्योतिष के प्रति समर्पण को
मुहम्मद इब्न मूसा के अलजेब्रा
और अल्गोरिथम के प्रयोग को
कलाम के अद्वितीय स्वरूप को।
तुम समझ पाते जीवन की प्रयोगशाला को
तुम कर पाते अनेकानेक प्रयोग,
जीवन के निमित्त।

पीछे की ओर लोच लेती गर्दन
जब ले जाती दिखाने तुम्हें
ऊपर का नीला आकाश,
दरम्यान उसके तुम देख पाते
ऊपर चढ़ती हुईं पर्वत मालाओं को
आसमान छूने को लालायित पेड़ों को
मुस्कुराते फूलों को
जमीं से उड़ान भरते
परिंदों के जत्थे को,
पनघट की प्यास को
लचकती कमर के ऊपर
ठुमकते घड़े को,
सतरंगी संसार की सुंदरता को
और फिर समझ पाते
इसके होने के कारण को
उत्थान की उत्कंठा को
बचाने की जिजीविषा को।

काश ! अपने ज्ञान को और विस्तार देते
काश!...

(लल्ला गोरखपुरी)

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