क्या हुआ? क्या सोच रहे श्रेष्ठ? हवा के हल्की छुअन से हिलते हुए पत्तों के समान ओष्ठ पल्लव और खनखनाती हुई आवाज में आर्य ने प्रश्न किया,
कुछ नही बस आत्मदर्शन, श्रेष्ठ ने उत्तर दिया।
आर्य- आत्मदर्शन! कौन सा आत्म दर्शन?
श्रेष्ठ- कौन सा से क्या आशय है आर्य? स्वयं के प्रति प्रतिबद्ध होकर आत्मावलोकन की स्थिति को समझ रहा हूँ, यही आत्मदर्शन।
आर्य- अच्छा! परन्तु स्वयं को समझ रहा हूँ यह बात कुछ समझ में नही आयी। किस प्रकार का आत्मावलोकन है तुम्हारा? कृष्ण के कर्मयोग का जिसमे गृहस्थ सन्यासी की चर्चा हुई है या भक्ति योग की जिसमे सन्यास की बाते हैं ?
श्रेष्ठ- हाहाहा! कर्म सन्यासियों से अछूता है क्या?
आर्य- बिल्कुल नहीं परन्तु कर्म की दुदुम्भी गृहस्थ ही बजाते हैं और गृहस्थ को सन्यासी से श्रेष्ठ ही कहा गया है।
श्रेष्ठ- कर्म की दुदुम्भी गृहस्थ ही बजाते हैं? हाहाहा! आर्य! कर्म की दुदुम्भी कर्म स्वयं बजाता है
आर्य-अच्छा! स्वयं कैसे?
श्रेष्ठ- जैसे हृदय पर धड़कन की थाप अविचल निरंतर एक आयाम तक पड़ती है उसी प्रकार किसी क्रिया में सक्रिय हुए अथवा स्थिर हुए के साथ भी कर्म जुड़ा रहता है।
आर्य- ठीक है, फिर इस कर्म की गति क्या है?
श्रेष्ठ- चेतना की गति ही कर्म की गति है।
आर्य- फिर अचेतावस्था में लोग अकर्मण्य होते हैं?
श्रेष्ठ- हाहाहा! चेतना का तात्पर्य मात्र बाह्य क्रियाओं को संपादित करने की स्थिति मात्र से नहीं है ,मस्तिष्क का वह भाग भी सदैव चैतन्यता को ही दिखाता है जो प्राणी को जीवित रखा है।
अंतः क्रिया भी कर्म को फलीभूत करती है।
आर्य- अच्छा ठीक है परंतु आज के समय के कार्य क्या तुम्हारे आत्मदर्शन को पुष्ट करते हैं?
श्रेष्ठ- बिल्कुल आर्य! बिल्कुल करते हैं।
आर्य- वह कैसे?
श्रेष्ठ- कार्यों के प्रति निष्ठा और ईमानदारी जो कि सदैव बोध कराती है सतचित का और यही तो एक मार्ग है आत्मदर्शन तक पहुंचने का।
आर्य- क्या जो निष्ठा और लगन के साथ गलत कार्य करते हैं वो भी इस आत्मदर्शन को जान सकते हैं?
श्रेष्ठ- बिल्कुल जान सकते हैं।
आर्य- वह कैसे?
श्रेष्ठ- ठीक उसी प्रकार जैसे अंगुलिमाल और वाल्मीकि ने जाना होगा जब अपने कार्यों के प्रति उनके विचार और निष्ठा एक दिन सतविचार और सत्यनिष्ठा से टकराये होंगे।
आर्य-अच्छा! लेकिन आज के परिवेश में ये स्थितियां दुर्गम जान पड़ती हैं
श्रेष्ठ- बिल्कुल दुर्गम तो हैं पर सुगमता से सटे हुए
आर्य- सुगमता से सटे हुए?
श्रेष्ठ- असल में बात यह है कि दुर्गम कुछ है ही नही बस रास्तों की सुविधाएं घटा या बढ़ा दी गयी हैं।
आर्य- हाहाहा! सही कहा श्रेष्ठ! फिर भी यदि ये सब तुम्हारे नजर में सुविधाएं हैं तो फिर लोग परेशान क्यूँ हैं? इन सुविधाओं को सुव्यवस्थित करने में लग क्यूँ नहीं जाते?
श्रेष्ठ- लगे तो हैं सभी सुव्यवस्थित करने में ही लगे हैं, कुछ मात्र विचारों से और कुछ माझी बनकर।
और इन्हीं कारणों से ये सुविधायें किसी के लिए घटी हैं तो किसी के लिए प्रचूर हैं
आर्य- आज रुपयों पर हवन करने वाले आत्मदर्शन को पा सकेंगे?
श्रेष्ठ- यदि उनमे लोक कल्याण की भावना है तो निःसंदेह
आर्य- यदि सभी अपने कल्याण में लगे हों तब भी तो लोक कल्याण सम्भव है?
श्रेष्ठ- स्वकल्याण, लोककल्याण की स्थिति को तभी प्राप्त कर सकती है जब उसमे परिवेश की प्रसन्नता समाहित हो अन्यथा कभी नहीं।
आर्य- सही कहा श्रेष्ठ!
श्रेष्ठ- आज का भौतिवादी समाज शांति तो चाहता है परंतु आत्मकेंद्रीयता के मूल्य पर नही बल्कि लोकभावनाओं के आस पर जो कि अस्थायी है या है ही नही।
आर्य- तो क्या आत्मकेंद्रीयता सन्यास से संभव है? जैसा कि बुध्द ने किया और आत्मदर्शन तक पहुंचे?
श्रेष्ठ- नहीं! बिल्कुल नहीं यह एक मार्ग अवश्य है लेकिन केवल यही एक मार्ग है ऐसा नहीं है।
आर्य- तो फिर दूसरा मार्ग क्या है?
श्रेष्ठ- दूसरा मार्ग! दूसरा मार्ग है समाज के बीच में ही सक्रिय रहकर समाज के बीच में नित्य घटित होने वाली घटनाओं को देखना, विमर्श करना और लोक कल्याण हेतु उसी समाज का मार्गदर्शन के साथ साथ आपसी प्रेम और सद्भाव को स्थापित करना और कराना, कुरीतियों और रीतियों के अंतर का बोध कराना आदि जिसे बाबा कबीर ने जीया और समाज की हर डोर को जोड़कर प्रेम रूपी धागे और कटु सत्य रूपी सुई से सीया।
आर्य- वाह श्रेष्ठ वाह! तुमने मुझे सन्यास और गृहस्थ सन्यास के अंतर को ठीक ठीक समझाया।
श्रेष्ठ- दोनों ही स्थितियां श्रेष्ठ ही हैं आर्य क्योंकि दोनों अंततः इसी समाज और मानव विचार तक लोककल्याण की भावनाओं के रूप में पहुंचती हैं।
आर्य- अर्थात, बुद्ध से कबीर तक!
श्रेष्ठ- हाहाहा! बिल्कुल आर्य!
आर्य- चलो श्रेष्ठ पुनः मिलना होगा नये प्रश्नों के साथ अगली कड़ी में
श्रेष्ठ- निःसंदेह ! शुभ हो! फिर मिलते हैं।।
अभिषेक(लल्ला गोरखपुरी)